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शनिवार, 29 अक्तूबर 2016

जानिये माता लक्ष्मी का प्राकट्य कैसे हुआ ?

जिस प्रकार भगवान् नारायण अनादि है उसी प्रकार माता लक्ष्मी भी अनादि है और नित्य नारायण की सेवा में लगे रहती है। परंतु फिर भी माता लक्ष्मी के प्राकट्य (जन्म  की  नहीं) की कथा श्रीमद्भागवत महापुराण में आती है कि छठे चाक्षुष मन्वन्तर में जब देवताओ और असुरो ने मिलकर समुद्र मंथन किया तो मंथन के समय मंदराचल पर्वत मथानी और वाशुकि नाग नेति (रस्सी) बने थे। समुद्र मंथन से बहुत सारी दुर्लभ पदार्थ निकले जैसे अमृत, विष, कौ्शतुभ् मणि, कल्प तरु इत्यादि। 

उसी में से साक्षात माता लक्ष्मी भी प्रकट हुई। प्रकट होते ही उन्हें पाने के लिए देव दानव मानव सभी में होड़ लग गई । ये सभी दृश्य देखने के बाद माता लक्ष्मी ने सोचा की संसार में सारा झगड़ा लक्ष्मी के नाम से ही होता है हर कोई लक्ष्मी को पाना चाहता है सभी लक्ष्मी पति बनना चाहते है तो इतने में सर्व सम्मति से ये बात तय हुई की लक्ष्मी किनकी होंगी ये उन पर ही छोड़ दिया जाय। फिर क्या था देवता दानव मानव और यहाँ तक के संत भी कतार बना कर बैठ गए और लक्ष्मी जी के हाथो में वरमाला दे कर अपने लिए वर चुनने को कहा। फिर लक्ष्मी जी एक एक करके सभी के सामने गई पर सभी को उन्होंने अस्वीकार कर दिया क्योकि वहा जो कोई भी कतार में बैठ था उनकी लक्ष्मी के प्रति आशक्ति थी वो लक्ष्मी को पाने के लिए बैठे थे । 

फिर उनकी दृष्टि भगवान् नारायण पर पड़ी जो की अलग थलग एकांत में आँख बंद किये बैठे थे उनके मन में न तो लक्ष्मी के प्रति आशक्ति थी और न ही उन्हें पाने की कामना। तब लक्ष्मी जी उनके पास गई और उनके गले में जयमाला डाल दी।

 कहने का भाव यह है की वास्तविक लक्ष्मी उन्ही को प्राप्त होती है जिसके मन में लक्ष्मी के प्रति आशक्ति न हो सारे देवता दानव मानव क्योकि लक्ष्मी पर आशक्त थे अतः लक्ष्मी उन्हें अस्वीकार कर देती है पर नारायण किनके मन में लक्ष्मी के प्रति कोई विकार नहीं कोई भी पाने की इच्छा नहीं अतः लक्ष्मी ने खुद को उनके हीे योग्य समझा और जयमाला पहना दी।

ऐसा नहीं है की लक्ष्मी जी इसके पहने नारायण की नहीं थी। लक्ष्मी जी सदा से नारायण की थी परंतु एक बार की बात है लक्ष्मी जी ने नारायण से लौकिक लीला की इच्छा व्यक्त करते हुए कहा की आप तो अनादि है और मैं आपकी नित्य सेवा में लगी रहती हु पर हमारा कोई जन्म दिवस नहीं आता हमें भी इच्छा होती है की हमारा जन्म दिवस आता हम भी अपनी विवाह का वर्षगाँठ मनाते। तब नारायण ने कहा की ठीक है देवी अगर आप की इच्छा है तो आप समुद्र मंथन के समय समुद्र की बेटी बन कर प्रकट हो जाना और हमारा वरन कर लेना तो आप का जन्म और विवाह दोनों हो जायगा। 

तो इस प्रकार कार्तिक अमावश्या को लक्ष्मी जी समुद्र की पुत्री के रूप में प्रकट हुई और नारायण के गले में जयमाला डाल कर उनकी पत्नी के रूप में सेवा करनी लगी। तो लक्ष्मी जी सदा से ही नारायण की है पर लौकिक लीला करने के लिए भगवान् ने लक्ष्मी जी को समुद्र पुत्री के रूप में प्रकट किया।


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