शनिवार, 15 अक्तूबर 2016

शरद पूर्णिमा को किया था श्री कृष्ण ने महारास

शरद पूर्णिमा के दिन श्री कृष्ण ने किया था महारास।

श्रीकृष्ण ने शारदीय पूर्णिमा के दिन वृन्दावन में गोपियों के साथ महारास किया था जिसका वर्णन श्रीमद्भागवत महापुराण के दशम स्कंद के उनतीसवें अध्याय से तैंतीसवें अध्याय तक के पाँच अध्यायों में मिलता है जिसे रास पंचाध्यायी कहते है। मूलतः रास पंचाध्यायी कोई स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं है वरन ये श्रीमद् भागवत महापुराण की आत्मा है जो की 5 अध्यायों में श्री वेदव्यास जी ने कही है।

महारास के चिंतन पूर्व 3 बातें पर चिंतन परम आवश्यक है:-

1. इसमें गोपी के शरीर के साथ कुछ भी लेना देना नहीं है।

2.  इसमें लौकिक काम नहीं है।

3.  यह साधारण स्त्री पुरुष का नहीं अपितु जीव और ईश्वर का मिलन है।

विशुद्ध जीव का ईश्वर के साथ मिलन ही रास है। शुद्ध जीव का अर्थ है माया के आवरण से रहित जीव। पति के वियोग में जिस प्रकार पत्नी विरह में व्याकुल हो जाती है उसी प्रकार ईश्वर के वियोग में जीव का छटपटाना और ईश्वर से मिलने की तीव्र उत्कण्ठा मन में जागना यही महारास का मूल हेतु है। मिलन की इस तीव्र उत्कण्ठा को ही यथार्थ वर्णन करने ले लिए यहाँ पर श्रृंगार रस का आश्रय लिया गया है।

रास-लीला काम-लीला नहीं है  अपितु काम-विजय लीला है। लौकिक का आभास होते हुए भी
यह काम विकार से रहित लीला है।

श्री कृष्ण ने अपने अवतार धारण करते ही कई देवताओ के अभिमान और मोह को भंग किया यथा ब्रह्मा, अग्नि, इंद्र, वरुण इत्यादि। इन देवो की भाँती ही काम देव को भी अहंकार आ गया की मै ही सब से बड़ा देवता हु मेरे सामान दूसरा कोई नहीं है और श्री कृष्ण को ललकारने लगा की आप इस अवतार में किसी भी मर्यादा का पालन नहीं करते और वृन्दावन की युवतियों के साथ विहार करते रहते हो , मै चाहता हु की आप पर तीर चलाऊ यदि आप निर्विकार रहे तो आप की विजय और यदि आप में विकार आ गया तो मै ईश्वर बन जाऊँगा इस प्रकार कामदेव ने शरद पूर्णिमा की रात्रि को भगवान् श्री कृष्ण को गोपियो के साथ विहार करने को कहा , तब श्री कृष्ण ने कहा- हे कामदेव यदि तेरी यही इच्छा है तो ऐसा ही होगा ।

फिर शारदीय पूर्णिमा की रात्रि के समय भगवान श्रीकृष्ण के मन में गोपियों के साथ रसमयी रासक्रीड़ा करने का संकल्प हुआ। उन्होंने अपनी मनोहारी कामबीज वंशी की ध्वनि बजाई। वंशी की मोहक ध्वनि सुनते ही गोपियाँ अपना समस्त क्रियाव्यापार त्याग कर रास प्रदेश में कृष्ण के पास पहुँच गई। गोपियो की आतुरता इतनी बड़ी हुई थी की गोपियाँ जिस काम में लगी थी सब छोड़ कर भागती हुई श्री कृष्ण के पास चली आई। जो गोपियाँ गायो का दोहन कर रही थी तो पात्र वही छोड़ कर चली आई। जो गोपियाँ श्रृंगार कर रही थी वो अपना श्रृंगार आधे में ही छोड़ कर चली आई। जो गोपियाँ घर का गोबर से लेपन कर रही थी वो गोबर से सने हाथ ले कर भागी चली आई। कहने का तात्पर्य यह है की महारास में जोगोपियाँ आई थी वो कोई दिव्या सुंदरता को युक्त नहीं थी सभी साधारण दिखने वाली गोपियाँ  थी और जो गोपी जिस हालात में थी कृष्ण की बंशी सुन कर महारास में उसी अवस्था में चली आई थी। गोपियो की इस उत्कण्ठा से ईश्वर के प्रति जीव के मिलान की व्याकुलता को समझा जा सकता है।

जो गोपियाँ महारास में आई थी वो कौन थी?

 जब ऋषि मुनि हजारो वर्षो तक तपस्या करके और ब्रह्म चिंतन करके भी काम पर विजय नहीं पा सके तो उस काम को श्रीकृष्ण को अपने काम को अर्पण करने की इच्छा से गोकुल में गोपियो का रूप धारण करके आए। ईश्वर को काम का अर्पण करके निष्कामी बनो क्योकि मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु काम ही है इस से बहुत से अन्य विकार उत्पन्न होते है और मनुष्य का बुद्धिनाश हो जाता है। यदि हम काम को गोपियों की भाँती ईश्वर को अर्पित कर दे तो वह कभी अंकुरित नहीं हो पायगा।

गोपियाँ कोई साधारण स्त्रियाँ नहीं थी वरन भगवान् की परम भक्त थी और भगवान् श्री कृष्णा ने सभी गोपियों को रास में महाभाग्यशाली कहा है। मोटर गाडियो में घूमने वाला धन दौलत से संपन्न व्यक्ति भाग्यशाली नहीं कहा जाता बल्कि जो सांसारिक सुखो को और काल के डर को पीछे छोड़ कर भगवान् की ओर दौड़ पड़े, जो ईश्वर मिलन को व्याकुल हो वह जीव महाभाग्यशाली है। जो प्रभु प्रेम में मीरा की तरह पागल हो वो भाग्यशाली है और प्रभु ऐसे ही जीव का स्वागत करते है।

इस प्रकार जब गोपियाँ बंशी की तान सुन कर श्रीकृष्ण के पास आई तब श्री कृष्ण ने उन्हें पहले तो समझा-बुझाकर अपने घर वापस जाने को कहा, की रात्रि के समय इस घनघोर जंगल में तुम क्यों आई हो, वहां तुम्हारे पति,संतान आदि प्रतीक्षा कर रहे होंगे और अन्य तर्कों के माध्यम से गोपियों को वापस घर लौट जाने को कहा किंतु गोपियाँ अपने निश्चय पर आरूढ़ रहीं और श्रीकृष्ण से बोली की हे प्रभू आप ऐसे निष्ठुर क्यों हो गए? आप तो पतितपावन है दया सागर है ऐसी श्रद्धावश हम आप के चरणों में आई है हम संसार के सभी विषयो का मन से त्याग करके आप के चरणों की शरण लेने के लिए अटल निश्चय कर यहाँ आई है। सभी विषयो का त्याग करके भगवान् की शरण में जाने वाला जीव ही गोपी है।

इस तरह श्रीकृष्ण ने विविध भाँती गोपियों की परीक्षा ले कर उनके मन को टटोला और पूरी तरह कसौटी पर कसने के बाद उनको अपने रास में प्रवेश दिया। वैसे तो भगवान् कभी पराजित होते नहीं पर गोपियों के साथ वार्तालाप में भगवान् ने अपनी पराजय स्वीकार की है।

फिर श्री कृष्ण ने आनंदपुलकित मन से मडंलाकार स्थिति होकर उनके साथ रासलीला प्रारंभ की। श्रीकृष्ण ने एक साथ अनेक रूप धारण किये। जितनी गोपियाँ थी उतने रूप बना लिए और प्रत्येक गोपी के साथ एक एक स्वरुप रख कर रास प्रारम्भ कर दिए। हजारो जन्मों का विरही जीव आज प्रभु के सम्मुख उपस्थित हो कर पुलकित हो उठा और उससे भी ज्यादा भगवान् पुलकित हो रहे थे। प्रभु में सभी को आलिंगन किया। गोपियों को परमानंद प्राप्त हुआ। आज जीव ईश्वरमय हो गया और ईश्वर जीवमय।इस रासलीला को वैष्णव भक्त दिव्य क्रीड़ा मानते हैं और इसका आध्यात्मिक अर्थ प्रस्तुत करते हैं। श्री कृष्ण चिदानंदघन दिव्यशरीर हैं, गोपियाँ दिव्य जगत् की भगवान की अतंरंग शक्तियाँ हैं। उनकी लीला भावभूमि की है स्थूल शरीर और मन से उसका कोई संबंध नहीं।
रास में साहित्य संगीत और नृत्य का समावेश होता है और इस रास में काम का अंश मात्र भी नहीं है देव गन्धर्वे नारद जी आदि सभी आकाशमंडल से इस लीला की निहार रहे थे । रास को देखकर ब्रह्मा जी सोचने लगे की गोपियाँ  तो है पर फिर भी इस प्रकार पराई स्त्रियों के साथ लीला करना शास्त्र मर्यादा के विपरीत है तब श्रीकृष्ण ने सभी गोपियों को अपना स्वरुप दे दिया और सर्वत्र कृष्ण ही कृष्ण दिखाई ब्रह्मा जी को देने लगे गोपी थी ही नहीं। सभी पीताम्बरधारी एक दूसरे के साथ रास खेल रहे थे तब ब्रह्मा जी ने मान लिया की ये साधारण स्त्री पुरुष का मिलन नहीं है है वास्तव में श्रीकृष्ण ही गोपी रूप हो गए है और भगवान् की जय जयकार कर उठे। यदि इस लीला में लौकिक काम भाव होता तो देवता इसे निहारने नहीं आते।

इस प्रकार गोपियों को श्री कृष्ण ने मान दिया तो गोपियों को अभीमान ने घेर लिया। गोपिया मानने लगी की कृष्ण तो हम पर ऐसे ही आसक्त है बस वो अनासक्त होने का दिखावा कर रहे थे। गोपियों में अभिमानवश ऐसा भाव जगा ही था की श्रीकृष्ण अदृश्य हो गए। भगवान् तो सर्वत्र व्याप्त है फिर अदृश्य क्यों हुए वो इस लिए की जब जीव की आँखों में अभिमान का पर्दा छा जाता है तब प्रभु दिखाई  नहीं देते। सारी गोपियाँ कृष्णा को बहार ढूंढने लगी। यह जीव का अज्ञान है जो भगवान् को बहार जगत में ढूंढता फिरता है जब की वो सब के ह्रदय में सदा विद्यमान है। भगवान् गोपियों के ह्रदय में समां गए थे जबकि गोपियाँ उन्हें बाहर ढूंढ  रही थी।  यदि स्त्री वस्त्र धन आदि तुम्हे आनंद दे रहे है तो उनके वियोग में तुम्हे दुःख होगा । तुम्हारा आंनद स्वाधीन होना चाहिए, पराधीन नहीं। पराधीन आनंद दुखदाई होता है।

कृष्ण विरह में गोपियाँ बावली हो कर वन वन घूम रही थी और वृक्ष फूल पत्तो से पूछ रही थी की कही तुमने हमारे श्याम सुन्दर को देखा है।

अंतर्ध्यान होते समय श्रीकृष्ण श्रीराधा जी को साथ ले गए थे। इस बात का राधा जी को अभिमान आ गया, श्री कृष्ण और श्री राधा जी एक ही है जैसे सूर्य और उसकी किरणे । राधा जी ने कृष्ण से कहा मै थक गई हु अब नहीं चला जाता आप मुझे कंधो पर उठा लीजिये। कृष्ण ने उनको कंधो पर बिठा लिया और अंतर्ध्यान हो गए। राधाजी वृक्ष की एक डाली पर लटक रही थी। राधाजी के अभिमान को उतारने के लिए कृष्ण ने ऐसा किया था। वैसे राधाजी को अभिमान आ ही नहीं सकता यह एक लीला मात्र थी। मनुष्य भी अभिमान के आते ही राधा की भाति अधर में लटक जाता है और अभिमान अपने साथ कई दुर्गुणों को भी ले आता है।

फिर कृष्ण को  पुकारती हुई राधाजी अचेत हो गई और कृष्ण को ढूंढती गोपियाँ वहा पहुची। और सभी गोपियों ने गीत के माध्यम से अपने भाव को व्यक्त करना प्रारम्भ किया जिसे गोपीगीत कहते है। गोपीगीत का छंद है इंदिरा और इंदिरा कहते है लक्ष्मी को। गोपियों ने इस गीत के माध्यम से कृष्ण के लीला गुण धाम आदि का विस्तृत वर्णन किया। दशम स्कन्द के इकतीसवें अध्याय को गोपीगीत कहते है।

गोपियों की कृष्ण दर्शन अभिलाषा ऐसी है की आँख के पलक झपकने पर ब्रह्मा को कोसती है क्योकि पलक झपकने से दर्शन में बाधा आती है। और गोपियाँ एक क्षण का भी वियोग नहीं सह सकती।

अंत में श्रीकृष्ण प्रगट हुए और गोपियों से बोले हे सखी तुम सब मेरी हो पर तुम्हे अभिमान हो गया था उस अभिमान को मिलाकर तुम्हारा मन अपने में केंद्रित करने को ही तुम्हे विरहाग्नि में जलाना पड़ा। मेरे प्रति कुभाव न रखो।यदि मै देवताओ के आयु ले कर भी तुम्हारी सेवा करू तो भी तुम्हारे ऋण को नहीं चुका पाउँगा।

रास लीला में लौकिक कामाचार नहीं था । सभी की अवस्था ग्यारह वर्ष से कम थी। ऐसे छोटे बालको के मन में काम वाशना कैसे हो सकती थी?

इस कथा के वक्त शुखदेव जी  परमहंस है जिनके दर्शन मात्र से अप्शराओ का काम भंग हो गया था जो लौकिक काम बात कर ही नहीं सकते इस कथा के श्रोता राज परीक्षित थे जो मरणासन्न थे अतः मरते समय उनके लिए कामाचार सुनने का कोई प्रयोजन नहीं हो सकता था।

रास लीला में कृष्ण और गोपियों का दैहिक मिलान नहीं था गोपियों का पंचभौतिक शारीर तो उनके अपने अपने घर में था। यहाँ तो उनका सूक्ष्म देह से मिलन था आत्म मिलान था।

इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण ने महारास की लीला की जो की अत्यंत ही पवित्र और विशुद्ध प्रेम का घोतक है। हम सभी जीवो को भी इस मानव तक को प्राप्त कर उन गोपियों की तरह ही अपनी पुरे समर्पण के साथ प्रभु से मिलान की उत्कण्ठा होनी चाहिए तभी इस जीव का कल्याण हो सकता है वरना मानव का यह देह धारण करने का हमारा हेतु सार्थक नहीं हो पायगा। जो मनुष्य इस मानव देह को पा कर भी श्रीकृष्ण की भक्ति नहीं करते उनको महामूर्ख की संज्ञा दी गई है।

महारास पर कुछ कहने का अधिकारी मै नहीं हु पर संतो के सत्संग से जो कुछ पाया वो आप लोगो से व्यक्त किया।

जय श्री कृष्ण 


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