सोमवार, 28 नवंबर 2016

कर्म का प्रवाह कैसे होता है?

वेदांत की दृष्टि में कर्म का प्रवाह अनादि है। जब तक प्राणी जीवित है उसे कर्म करना पड़ता है। व्यक्ति एक क्षण को भी अकरमॉ नहीं रह सकता। क्योकि प्रकृति के गुण सत्व , रज और तम सबसे बलपूर्वक कुछ न कुछ कर्म कराते रहते है। मनुष्य जैसा कर्म करता है वैसा फल उसे भोगना पड़ता है।

कर्म तीन प्रकार के होते है:-

1  प्रारब्ध कर्म:- पूर्व जन्म कृत भोगोन्मुख कर्म।

2 सञ्चित कर्म:- विगत जन्मों से सञ्चितकर्म जिसका भोग अभी तक आरम्भ नहीं हुआ है।

3  क्रियमाण कर्म:- ये चार प्रकार का होता है

नित्य कर्म:-  जैसे स्नान, संध्या-वंदन आदि।

नैमित्तिक कर्म:-  जैसे जन्म, विवाह, सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण आदि।

काम्य कर्म:-  धर्मशाला बनवाना , कुँआ तालाब खुदवाना आदि।

निषिद्ध कर्म:-  शराब पीना , जुआ खेलना, हिंसा करना आदि।

कर्म जीवात्मा को एक योनि से दूसरे योनि में धकेलते रहते है। अतएव जब क्रियमाण कर्म में फल की आशक्ति नहीं रहती तब वही निष्काम कर्म योग कहलाता है। इस जगत में शास्त्र नियत कर्म को करते हुए त्याग भाव से परमेश्वर के लिए किये जाने वाला कर्म मनुष्य में लिप्त नहीं होते जिससे मनुष्य कर्म बंधन से मुक्त हो कर मोक्ष को प्राप्त करता है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें