शनिवार, 10 दिसंबर 2016

श्रीमद्भगवतगीता का प्राकट्य क्यों कब और किसके द्वारा हुआ?

श्रीमद्भगवतगीता का प्राकट्य माघशीर्स शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन जिसे मोक्षदा एकादशी भी कहा जाता है के दिन भगवान् श्रीकृष्ण के मुखारवृन्द से हुआ।

धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में जब कौरव-पांडव के बीच युद्ध प्रारम्भ होने वाला था तब नर स्वरुप अर्जुन को मोह हुआ और वह युद्ध करने से मना कर दिया तब नारायण स्वरुप भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया था।

भगवान् महाभारत के युद्ध में अर्जुन के सारथि बने थे अर्जुन के रथ जिसका नाम नंदिघोष था उसका संचालन भगवान् के द्वारा किया गया।

वास्तव् में अर्जुन को मोह होना प्रभु की लीला मात्र थी वरना अर्जुन स्वयं में ज्ञान  से परिपूर्ण थे जितेन्द्रिय थे। पर हम जन सामान्य लोगो तक ज्ञान की उस अविरल गंगा को पहुचाने के लिए उन्होंने एक अज्ञानी बन कर भगवान् से 18 अध्याय में सुन्दर प्रश्न किये और भगवान् ने एक एक करके अर्जुन के सारे प्रश्नो के उत्तर दिए।

गीता में ब्रह्म, जीव और माया रुपी जगत के गुह्यतम रहष्य को भगवान् ने स्वयं अपने मुखारवृन्द से प्रकट किया है। गीता में कही भी कृष्ण उवाच नहीं कहा गया बल्कि श्री भगवान् उवाच कहा गया है। तात्पर्य यह है की इस ज्ञान की गंगा को स्वयं भगवान् ने प्रकट हो कर हम जन सामान्य तक पहुँचाया।

गीता में भगवान् ने कर्म योग, ध्यान योग, भक्ति योग तीनो को सविस्तार बताया है। इसके अलावा श्री भगवान् ने जीव रुपी अर्जुन को निष्काम कर्म योग के माध्यम से कैसे कर्म करते हुए भी कर्म के प्रति अनाशक्ति हो तो हमारा कर्म निष्काम बन जाता है यह समझाया। भगवान् ने सभी कर्म उन्हें अर्पित कर करना सिखाया।

श्रीमद्भागवतगीता किसी जाती धर्म व वर्ण विशेष के लिए ना होकर सम्पूर्ण मानव जाती के लिए एक जीवन जीने की कला और दर्शन के रूप में देखा जा सकता है। मनुष्य अपने जीवन में आने वाली सभी प्रकार के समस्याओ का समाधान गीता से प्राप्त कर सकता है।

श्रीमद्भगवतगीता कोई पाठ या पारायण करने का ग्रन्थ नहीं है बल्कि यह इसमें बताय गए उपदेशो और सारगर्भित बातो को आत्मसात करने का ग्रन्थ है। गीता के उपदेश को आत्मसात कर मनुष्य एक आदर्श जीवन शैली प्राप्त कर सकता है। गीता में आध्यात्म, दर्शन और दिव्य ज्ञान की त्रिवेणी है।

अन्य जो भी ग्रन्थ है वो किसी न किस के द्वारा प्रसंगवश लिखे गये है पर श्रीमद्भगवतगीता को भगवान् ने स्वयं अपने मुखारवृन्द से प्रकट किया है अतः इसमें जो भी बातें कही गई है वो भगवान् के शब्दावतार स्वरुप है। गीता समस्त वेदों शास्त्रो पुराणों और उपनिषदों का सार या भाष्य स्वरुप है।

अतः मनुष्य को चाहिए की किसी श्रोत्रीय ब्रह्मनिष्ठ गुरु का आश्रय लेकर गीता के इस ज्ञान का मनन चिंतन कर अपने जीवन में उसके सार को आत्मसाद कर अपने आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त करे।

जय श्रीकृष्ण।







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