सृष्टि के आदि में श्रीहरि नारायण प्रभु ने ब्रह्मा जी को बीज रूप श्रीमद्भागवत कथा अपने श्रीमुख से सुनाई जिसे चतुःश्लोकी भागवत कहते है।
जिस प्रकार बीज आगे पल्लवित होकर पुष्प फल आदि उत्त्पन्न करते है उसी प्रकार श्री ब्रह्माजी ने भी चतुःश्लोकी भागवत को आत्मसात कर इस सृष्टि की रचना की और कालान्तर में इसे सविस्तार अपने परम प्रिय जिज्ञासारत पुत्र नारद जी को सुनाई।
नारद जी ने इसे खिन्नमना श्री वेदव्यास जी को विस्तार से इस कथा को सुनाया।
वेदव्यास जी ने फिर बद्रीनाथ धाम के पास माना नमक गाँव में जिसका प्राचीन नाम साम्यप्रास था वहाँ इस ग्रन्थ की रचना सुन्दर 18000 श्लोको में की और आगे चल कर अपने परमहंस पुत्र शुकदेव जी को ही परम पात्र मान कर ये कथा शुकदेव जी को सुनाई।
फिर जब राज परीक्षित को 7 दिनों में शार्प दंश से मरने का श्राप लगा तब नैमिषारण्य की पवित्र भूमि में परमहंस श्री शुकदेव जी ने ये कथा साप्ताहिक विधि अर्थात 7 दिनों में राज परीक्षित को श्रवण कराई जिसे सुन कर परीक्षित सारे बंधन से मुक्त हो कर परम तत्त्व में लीं हो गय।
आगे नैमिषारण्य में ही फिर सूत जी ने शौनकादिक ऋषियो को प्रसंगवश इस कथा का रसपान कराया।
इस तरह से श्रीमद् भागवत महापुराण श्रीहरि के श्रीमुख से प्रकट हो कर आज हम सभी को सुन्दर ग्रन्थ के रूप में भक्ति की गान गंगा स्वरुप प्राप्त है।
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