शुक्रवार, 9 दिसंबर 2016

जीवात्मा का वास्तविक स्वरुप क्या है?

मानस में गोस्वामी जी ने कहा है:-

"ईश्वर अंश जीव अविनासी चेतन अमल सहज सुख राशि।"


मानस में गोस्वामी जी ने जीवात्मा को ईश्वर का अंश बताते हुए अजर अमर और आनंद का अंश बताया है।


इसी प्रकार गीता में भी श्री कृष्ण ने कहा है:-
"न जायते न म्रियते वा कदाचित न हन्यते हन्यमाने शरीरे"


गीता में भी जीवात्मा को जन्म मृत्यु से रहित बताया गया है।


वास्तव में जीव ईश्वर का ही अंश है और अनादि अनंत है। जिस प्रकार ईश्वर का कोई आदि अन्त नहीं है उसी प्रकार जीवात्मा भी का कोई आदि अन्त नहीं होता है। जीवात्मा का कभी जन्म नहीं होता और न ही मृत्यु होती है। प्रलय काल में भी जब सारी सृष्टि का लय हो जाता है तब सभी जीव भगवान् के महोदर के एक रोम में सुसुप्तावस्था में रहते है और जब उन्हें सृष्टि करनी होती है तब उन जीवो को प्रकट कर देते है। 


सृष्टि रचना के बाद जब जीवात्मा किसी शरीर को धारण कर लेता है और जब उसकी आयु पूर्ण हो जाती है तब वह उस शरीर को त्याग कर अपने कर्म फल के आधार पर किसी अन्य योनि को धारण कर लेता है। हमारे हिन्दू धर्म के अनुसार चौरासी लाख प्रकार की योनियाँ बतायी गयी है जिनमे जीवात्मा अपने कर्मफल के अनुसार शरीर धारण करता है।


सभी योनियो में मनुष्य योनि को ही कर्म योनि माना गया है बाकी सभी योनियाँ भोग योनि होती है। मनुष्य योनि में पुण्य कर्म करके जीव स्वर्ग को प्राप्त करते है और जब तक उसके पुण्यफल है तब तक स्वर्ग के सुखो को भोगकर अन्त में फिर इस मृत्यु लोक में वापस आना पड़ता है। 

वही पाप कर्म करके जीव को नरक का दुःख भी भोगना पड़ता है। पाप और पुण्य की साम्यावस्था में उसे धरती पर कोई योनि प्राप्त होती है। परंतु मोक्ष की प्राप्ति उसे कही नहीं होती। मोक्ष की प्राप्ति उसे केवल भगवत कृपा और भक्ति से ही प्राप्त होती है। 


अतः पाप पुण्य और स्वर्ग नरक के चक्कर में न पड़ते हुए जीव को भगवत भक्ति कर अपने आत्मकल्याण के बारे में सोचना चाहिए। 



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें