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मंगलवार, 10 जनवरी 2017

रावण को पता था "श्रीराम भगवान् है"!!

मानस के अरण्यकाण्ड में गोस्वामीजी ने वर्णन किया है की जब सुपनखा का नाक लक्ष्मण जी ने काटा और उसके बाद  खर-दूषण और तिशरा का वध श्रीराम ने किया तब सुपनखा अपने भाई रावण के पास पहुची और सारा वृत्तांत सुनाया। बहन के वचनो को सुन कर रावण अचंभित हुआ और मन ही मन विचार कर बोला:-

सुर नर असुर नाग खग माहीं। मोरे अनुचर कहँ कोउ नाहीं॥
खर दूषन मोहि सम बलवंता। तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता॥

रावण बोला  देवता, मनुष्य, असुर, नाग और पक्षियों में कोई ऐसा नहीं, जो मेरे सेवक को भी पा सके अर्थात उस समय धरती पर कोई भी ऐसा मनुष्य नहीं था जो रावण के सेवको से बैर कर सके और खर-दूषण तो सहस बल और पराक्रम में मेरे ही समान बलवान थे। उन्हें भगवान के सिवा और कौन मार सकता है?

सुर रंजन भंजन महि भारा। जौं भगवंत लीन्ह अवतारा॥
तौ मैं जाइ बैरु हठि करऊँ। प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ॥

देवताओ को आनंद देने वाले और पृथ्वी का भार हरण करने वाले भगवान ने ही यदि अवतार लिया है, तो मैं जाकर उनसे हठपूर्वक वैर करूँगा और प्रभु के बाण के आघात से प्राण छोड़कर भवसागर से तर जाऊँगा॥

होइहि भजनु न तामस देहा। मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा॥
जौं नररूप भूपसुत कोऊ। हरिहउँ नारि जीति रन दोऊ॥

इस राक्षस शरीर से भजन तो होगा नहीं, अतएव मन, वचन और कर्म से यही दृढ़ निश्चय है। और यदि वे मनुष्य रूप कोई राजकुमार होंगे तो उन दोनों को रण में जीतकर उनकी स्त्री को हर लूँगा।

उपरोक्त सभी चोपाई का अवलोकन करने के बाद यह कहा जा सकता है की रावण को इस बात का आभास हो गया था की श्रीराम और कोई नहीं स्वयं भगवान् विष्णु के ही अवतार है इस लिए रावण ने अपनी राक्षसी प्रवृत्ति अर्थात तामसी प्रवृत्ति के कारण भजन न कर भगवान् से शत्रुता की और माता सीता का हरण किया ताकि श्रीराम माता सीता को उसका वध कर पुनः प्राप्त कर सके।

संसार में सत्, रज और तम तीन प्रकार की प्रवृत्ति होती है जिस जीव की जैसी प्रवृत्ति हो उसी अनुरूप भगवान् से प्रीति अथवा बैर करके अपना आत्मकल्याण कर सकता है।

लेख:- पं. आशुतोष चौबे
         बिलासपुर (छ. ग.)

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