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बुधवार, 4 जनवरी 2017

जानिये चारो वर्णों की उत्पत्ति कैसे हुई?

श्रीमद्भागवतमहापुराण के अनुसार मैत्रेयजी-विदुर संवाद में मैत्रेयजी ने चारो वर्णों की उत्पत्ति का रहष्य बताया की इन वर्णों की उत्पत्ति कैसे हुई:-

ब्राह्मण:- वेद और ब्राह्मण भगवान् के मुख से प्रकट हुए। मुख से प्रकट होने के कारण ही ब्राह्मण सब वर्णों में श्रेष्ठ और सबका गुरु है।

क्षत्रिय:- भगवान् की भुजाओ से क्षत्रियवृत्ति और उसका अवलम्बन करने वाला क्षत्रिय वर्ण उत्पन्न हुआ, जो विराट् भगवान् का अंश होने के कारण सब वर्णों की रक्षा करता है।

वैश्य:- भगवान् के दोनों जांघो से सब लोगो का निर्वाह करने वाली वैश्यवृत्ति का प्रादुर्भाव हुआ। यह वर्ण अपनी वृत्ति से सब वर्णों की आजीविका चलाता है।

शुद्र:- अंत में सब धर्मो की सिद्धि के लिए भगवान् के चरणों से सेवावृत्ति प्रकट हुई और उन्ही के साथ सेवावृत्ति का अधिकारी शुद्र वर्ण भी प्रकट हुआ, जिनकी सेवा वृत्ति से श्रीहरि अत्यंत प्रसन्न होते है।

इस प्रकार हमारे सनातन हिन्दू धर्म के चारो वर्णों की उत्पत्ति भगवान् के ही श्रीअंगो से हुई है अतः इन चारो वर्णों में किसी भी वर्ण को किसी दूसरे वर्ण से अच्छा या बुरा प्रकार से भेद करके नहीं देखना चाहिए। जिस प्रकार हम अपने शरीर के किस भी अंग में भेद नहीं करते चाहे वह हमारा सर हो या पैर उसी प्रकार भगवान् के विभिन्न अंगो से प्रकट होने वाले वर्णों में भी भेद नहीं करना चाहिए। 

प्रत्येक वर्ण की उत्त्पत्ति एक निर्धारित कर्म क्षेत्र के आधार पर हुई है जिससे की सृष्टि का संचालन सही ढंग से किया जा सके और समाज में एक व्यवस्था बनाई जा सके। भगवान् कभी अपने भक्तो का वर्ण नहीं देखते वो उनके भाव देखते है। जिसे जिस वर्ण की जवाबदारी अपने कर्मफल अनुसार मिली है बस उस वर्ण के कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए भगवान् की भक्ति करना चाहिए। 

क्योकि भगवान् यदि दुर्योधन के छप्पन भोग को ठुकराते है तो वही विदुर जी के घर सुखी साग और रोटी खाने में उनको आनंद आता है। जहा भगवान् बड़े बड़े योगी और ऋषि मुनियो के हजारो वर्षो के ध्यान करने पर भी दर्शन नहीं देते पर माता शबरी के अकिंचन भक्ति से प्रसन्न को स्वयं उनके द्वार पर जाकर उनके जुठे बेर खाते है। 

भगवान् कभी जीवो में जातिगत भेदभाव नहीं करते ये हम इंसानो की मंद बुद्धि का परिणाम है जो हम ऊँच-नीच का भाव अपने मन में लाते है। भगवान् ने विभिन्न पुराणों में अपनी लीलाओ के द्वारा जो आदर्श स्थापित किये है उनका चिंतन कर हमें समाज में व्यवहार करना चाहिए इसी में इस मानव जीवन की सार्थकता है।

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