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शनिवार, 11 मार्च 2017

होली त्यौहार मनाने के अनसुनी पौराणिक कथाएँ!!!

सनातन हिन्दू धर्म में अनेक त्यौहार समय समय पर मनाया जाता है। इन्ही में से एक महत्वपूर्ण त्यौहार है होली का जो की फाल्गुन पूर्णिमा को मनाया जाता है और दूसरे दिन इसे एक उत्सव की भाँती रंगो और पकवानो के साथ मनाया जाता है। वैसे तो होली के इस त्यौहार को मनाने के पीछे कई पौराणिक मान्यताये है परंतु भक्त प्रह्लाद और उनकी बुआ होलिका की कथा सर्व प्रचलित है। आइये जाने किन किन पौराणिक घटनाओ के कारण होली का त्यौहार मनाया जाता है:-

1. कामविजय के रूप मे:-  शिव पुराण के अनुसार माता शती के अग्नि में प्रवेश करने के उपरान्त भगवान् शिव समाधि में चले गए थे। तभी तारकसुर नाम के एक राक्षस ने तीनो लोक में उत्पात मचाना प्रारम्भ किया। उसे वरदान था क़ि वह शिव पुत्र के हाथो ही मारा जायगा। अतः इंद्र सहित सभी देवता माता शक्ति की शरण में गए और माँ ने पार्वति का अवतार धारण किया और शिवजी को पति रूप में पाने के लिए तपस्या करने लगी। इंद्र ने अपने स्वार्थ वश कामदेव को शिवजी की समाधि भंग करने के लिए भेजा ताकि भगवान् शिव माता पार्वति से विवाह कर पुत्र को उत्पन्न करे और तारकसुर का विनाश हो। परंतु शिवजी की समाधि भंग करने गए कामदेव को भोलेनाथ ने अपने नेत्रअग्नि से भस्म कर दिया। तभी से काम भाव पर प्रेम के प्रतिकात्मक विजय के रूप में होली का त्यौहार मनाया गया।

2. पुतना वध के बाद गोकुल वासियो द्वार:-  द्वापर में जब भगवान् श्रीकृष्ण अवतार लिए तब उनके जन्म लेते ही उन्हें गोकुल में रहना पड़ा। श्रीकृष्ण जब छः दिन के थे तब कंस ने उन्हें मारने के लिए पुतना नाम की राक्षसी को भेजा। पुतना ने सुन्दर स्त्री का रूप धारण कर गोकुल गई और माता यसोदा से कृष्ण को स्तन पान कराने के लिए आग्रह करने लगी। माता यसोदा ने अनुमति दे दी। फिर क्या था कृष्ण को अपनी गोद में पाते ही हवा में उड़ गई और अपने विष लगे स्तन का पान कराने लगी। भगवान् श्रीकृष्ण माया पति है अतः उन्होंने उस पापिनी पुतना के इस माया को जान कर स्तन पान करते हुए उसके प्राण को ही खिंच लिए और पुतना को गति प्रदान की। यह दिन फाल्गुन पूर्णिमा का था अतः इसके दूसरे दिन बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में गोकुल में भारी उत्सव मनाया गया।

3. राधा-कष्ण के प्रेम प्रतिक:- होली का त्यौहार श्रीराधाकृष्ण के प्रेम के त्यौहार के रूप में भी मनाया जाता है। मान्यता है की श्रीकृष्ण जब तक गोकुल में रहे प्रति वर्ष बसंत में श्रीराधा जी और समस्त ब्रज की गोप-गोपियों के साथ होली का यह उत्सव बड़े उल्लास के साथ मनाते थे। आज भी बसंत के मौसम में गोकुल और बरसाना में होली का यह उत्सव बड़े ही धूम धाम से मनाया जाता है जिसमे फूलो की होली, रंग अबीर की होली और लट्ठ मार होली जगत प्रसिद्द है।

4. ढुंढी राक्षसी का बच्चों द्वारा विनाश:-   पौराणिक मान्यता के अनुसार  एक राजा हुए उनका नाम था राजा पृथु। उनके समय में एक राक्षसी थी ढुंढी। वह नवजात शिशुओं को खा जाती थी। उस राक्षसी को वर प्राप्त था कि उसे कोई भी देवता, मानव, अस्त्र या शस्त्र नहीं मार सकेगा और न ही उस पर सर्दी, गर्मी और वर्षा का कोई असर होगा। उस राक्षसी को शिवजी के एक श्राप के कारण बच्चों की शरारतों से मुक्त नहीं थी। राजा को ढुंढी को खत्म करने के लिए राजपुरोहित ने एक उपाय बताया कि यदि फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन जब न अधिक सर्दी होगी और गर्मी, क्षेत्र के सभी बच्चे एक-एक लकड़ी एक जगह पर रखें और जलाए, मंत्र पढ़ें और अग्रि की परिक्रमा करें तो राक्षसी मर जाएगी। हुआ भी ऐसा ही इतने बच्चे एक साथ देखकर राक्षसी ढुंढी अग्रि के नजदीक आई तो उसका मंत्रों के प्रभाव से वहीं विनाश हो गया। तब से इसी तरह मौज-मस्ती के साथ होली मनाई जाने लगी।

5. होलिका कि अग्नि मे जलने के कारन:- प्राचीन काल में एक राक्षस हुआ हिरण्यकश्यप  जो क़ि भगवान् विष्णु का कट्टर विरोधी था। उसकी छोटी पत्नी कयाधु से एक पुत्र हुआ जिसका नाम था प्रह्लाद। प्रह्लाद जब माँ के गर्भ में थे तभी से उन्होंने देवर्षि नारद के द्वारा अपनी माँ को दिए गए भगवत तत्व को आत्मसात कर लिया था। जब प्रह्लाद का जन्म हुआ और वो जैसे जैसे बड़े होते गए उनकी भगवान् नारायण के प्रति प्रेम और भक्ति और भी बढ़ती गई। यह बात जब उसके पिता हिरण्यकश्यप को पता चली तब वो प्रह्लाद को मारने के विविध उपाय करने लगे यथा विषपान कराया, जल में डुबोना चाह, पहाड़ से गिरवाया, जहरीले सर्पो के बीच छोड़ दिया परंतु भगवान् नारायण की कृपा से प्रह्लाद का बाल भी बाका नहीं हो सका। तब हिरण्यकश्यप की बहन होलिका जिसे अग्नि से न जलने का वरदान प्राप्त था उसने सुझाव दिया की मै प्रह्लाद को अपनी गोद में बिठा कर अग्नि में प्रवेश करुँगी। भाई हिरण्यकश्यप ने यह बात मान ली और फाल्गुन पूर्णिमा के दिन होलिका प्रह्लाद को अपनी गोद में बिठा कर जलती हुई अग्नि में प्रवेश की तभी वहा घोर आश्चर्य हुआ कि अग्नि से न जलने का की वरदान प्राप्त होलिका अग्नि में जल भस्म हो गई और अकिंचन भक्त प्रह्लाद नारायण नारायण नाम का जाप करते हुए अग्नि से सकुशल बाहर आ गए। तब से यह होली का पर्व होलिका दहन के रूप में बुराई पर अच्छाई की विजय के प्रतिक स्वरुप मनाया जाने लगा।

लेख:- पं. आशुतोष चौबे
         बिलासपुर (छ. ग.)
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