संसार क्या है?
वास्तव में संस्कृत में संसार का अर्थ होता है "संसरइति संसारः" अर्थात जो परिवर्तनशील हो वही संसार है।
संसार हमेशा परिवर्तनशील होता है यदि हम आकलन करने बैठे तो आज से 50 साल पहले ये संसार कैसा था आज इस संसार का स्वरुप कैसा है और आने वाले 50 साल बाद इसका स्वरुप कैसा होगा तो इस परिवर्तन चक्र को समझ सकते है।
देश काल और परिस्थिति के अनुसार समाज में आर्थिक, सामाजित, धार्मिक और राजनैतिक परिवर्तन आता है।
हम दूर न जाते हुए अपने परिवार की ही बात करे की कल तक हमारे परिवार में कौन कौन था और आज उनमे से कितने काल के व्याल में समा गए है। कल तक परिवार की आर्थिक या सामाजित स्थिति क्या थी और आज क्या है तो हम पाएंगे की उनमे बहुत अंतर होता है और ये अंतर सकारात्मक या नकारात्मक दोनों ही हो सकते है।
इसी तरह से मनुष्य जब जन्म लेता है तब नवजात शिशु के रूप में बहोत ही अकिंचन होता है फिर धीरे धीरे आयु बढ़ती जाती है और समय के अनुसार उसके आचार-विचार, शारीरिक रचना, ज्ञान, स्वास्थय इत्यादि सभी पहलुओ में परिवर्तन आना प्रारम्भ हो जाता है फिर एक समय के बाद उसकी मृत्यु हो जाती है।
इस प्रकार ये संसार हमेशा से था और हमशा रहेगा ये सत्य है पर इसका स्वरुप क्या होगा ये कोई नहीं बता सकता। प्रति क्षण प्रति पल ये संसान परिवर्तनशील है।
परिवर्तन ही संसार का नियम है और जो मनुष्य इस परिवर्तन को स्वीकार कर अपने आप को सकारात्मकता के साथ इस संसार में ढाल लेते है वे ही अपने जीवन यात्रा में सफल हो पते है। सकारात्मकता और जीवन जीने की वास्तविक कला आध्यात्म से जुड़ कर ही सीखी जा सकती है। ईश्वर भक्ति कर मनुष्य अपने जीवन को सार्थक बना कर अंत में मुक्ति को प्राप्त करता है।
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वास्तव में संस्कृत में संसार का अर्थ होता है "संसरइति संसारः" अर्थात जो परिवर्तनशील हो वही संसार है।
संसार हमेशा परिवर्तनशील होता है यदि हम आकलन करने बैठे तो आज से 50 साल पहले ये संसार कैसा था आज इस संसार का स्वरुप कैसा है और आने वाले 50 साल बाद इसका स्वरुप कैसा होगा तो इस परिवर्तन चक्र को समझ सकते है।
देश काल और परिस्थिति के अनुसार समाज में आर्थिक, सामाजित, धार्मिक और राजनैतिक परिवर्तन आता है।
हम दूर न जाते हुए अपने परिवार की ही बात करे की कल तक हमारे परिवार में कौन कौन था और आज उनमे से कितने काल के व्याल में समा गए है। कल तक परिवार की आर्थिक या सामाजित स्थिति क्या थी और आज क्या है तो हम पाएंगे की उनमे बहुत अंतर होता है और ये अंतर सकारात्मक या नकारात्मक दोनों ही हो सकते है।
इसी तरह से मनुष्य जब जन्म लेता है तब नवजात शिशु के रूप में बहोत ही अकिंचन होता है फिर धीरे धीरे आयु बढ़ती जाती है और समय के अनुसार उसके आचार-विचार, शारीरिक रचना, ज्ञान, स्वास्थय इत्यादि सभी पहलुओ में परिवर्तन आना प्रारम्भ हो जाता है फिर एक समय के बाद उसकी मृत्यु हो जाती है।
इस प्रकार ये संसार हमेशा से था और हमशा रहेगा ये सत्य है पर इसका स्वरुप क्या होगा ये कोई नहीं बता सकता। प्रति क्षण प्रति पल ये संसान परिवर्तनशील है।
परिवर्तन ही संसार का नियम है और जो मनुष्य इस परिवर्तन को स्वीकार कर अपने आप को सकारात्मकता के साथ इस संसार में ढाल लेते है वे ही अपने जीवन यात्रा में सफल हो पते है। सकारात्मकता और जीवन जीने की वास्तविक कला आध्यात्म से जुड़ कर ही सीखी जा सकती है। ईश्वर भक्ति कर मनुष्य अपने जीवन को सार्थक बना कर अंत में मुक्ति को प्राप्त करता है।
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very true
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