यज्ञोपवीत (जनेऊ) किसे, कब और क्यों धारण करना चाहिए ?
वैदिक संप्रदाय का यज्ञोपवीत वेद की कर्म काण्ड संबंधी एवं उपासना संबंधी ऋचाओं का प्रतीक है। यह प्रतीक सूत्रात्मक है। इसे ब्रह्म सूत्र भी कहते है। यज्ञोपवीत धारण करने से द्विज को सर्वविध यज्ञ करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है व शुद्ध चरित्र एवं कर्त्तव्य पालन की प्रेरणा मिलती है। इसके बिना वेद पाठ व गायत्री जप निष्फल होता है।
यज्ञोपवीत परम पवित्र है तथा आयु, तेज व बल देने वाला है। यज्ञोपवीत मनुष्य को मनुषत्व से देवत्व प्राप्त कराने का सशक्त साधन है। ब्राह्मण का 8 वर्ष, क्षत्रिय का 11 वर्ष एवं वैश्य का 12 वर्ष की अवस्था में यज्ञोपवीत संस्कार करना चाहिए। असुविधा में आयु दुगनी ली जा सकती है।
यज्ञोपवीत उसे पहनाया जाता है जो ऋणि हो। पुरुष के ऊपर तीन ऋण होते है- देव, पितृ और ऋषि ऋण। हमारे यहाँ स्त्रियों को देवी माना गया है, न की कर्जदार इस लिए स्त्रियों का उपनयन नहीं किया जाता। पुरुष स्त्री का ऋणि है। अतः ऋण स्वीकार के लिए किये जाने वाले संध्यादि कर्म स्त्री को करने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्योकि पति द्वारा किये गए शुभ कर्मो का आधा पुण्य स्त्री को स्वतः ही प्राप्त हो जाता है।
यज्ञोपवीत का सम्बन्ध यज्ञ से है। पुरुष नाभि से ऊपर पवित्र तथा नाभि के नीचे अपवित्र होता है। इस लिए मलमूत्र के समय यज्ञोपवीत को कान में टांगा जाता है। टूट जाने पर, सूतक में, ग्रहण आदि में इसे बदला जाता है।
यज्ञोपवीत धारण करने का मंत्र
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वैदिक संप्रदाय का यज्ञोपवीत वेद की कर्म काण्ड संबंधी एवं उपासना संबंधी ऋचाओं का प्रतीक है। यह प्रतीक सूत्रात्मक है। इसे ब्रह्म सूत्र भी कहते है। यज्ञोपवीत धारण करने से द्विज को सर्वविध यज्ञ करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है व शुद्ध चरित्र एवं कर्त्तव्य पालन की प्रेरणा मिलती है। इसके बिना वेद पाठ व गायत्री जप निष्फल होता है।
यज्ञोपवीत परम पवित्र है तथा आयु, तेज व बल देने वाला है। यज्ञोपवीत मनुष्य को मनुषत्व से देवत्व प्राप्त कराने का सशक्त साधन है। ब्राह्मण का 8 वर्ष, क्षत्रिय का 11 वर्ष एवं वैश्य का 12 वर्ष की अवस्था में यज्ञोपवीत संस्कार करना चाहिए। असुविधा में आयु दुगनी ली जा सकती है।
यज्ञोपवीत उसे पहनाया जाता है जो ऋणि हो। पुरुष के ऊपर तीन ऋण होते है- देव, पितृ और ऋषि ऋण। हमारे यहाँ स्त्रियों को देवी माना गया है, न की कर्जदार इस लिए स्त्रियों का उपनयन नहीं किया जाता। पुरुष स्त्री का ऋणि है। अतः ऋण स्वीकार के लिए किये जाने वाले संध्यादि कर्म स्त्री को करने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्योकि पति द्वारा किये गए शुभ कर्मो का आधा पुण्य स्त्री को स्वतः ही प्राप्त हो जाता है।
यज्ञोपवीत का सम्बन्ध यज्ञ से है। पुरुष नाभि से ऊपर पवित्र तथा नाभि के नीचे अपवित्र होता है। इस लिए मलमूत्र के समय यज्ञोपवीत को कान में टांगा जाता है। टूट जाने पर, सूतक में, ग्रहण आदि में इसे बदला जाता है।
यज्ञोपवीत धारण करने का मंत्र
ॐ यज्ञोपवीतम परमं पवित्रं प्रजा पतेर्यत्सहजं पुरस्तात् । आयुष्यमग्रयं प्रतिमुंञ्च शुभ्रं। यज्ञोपवितम् बलमस्तुतेज:।।
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