गुरुवार, 8 दिसंबर 2016

भक्ति के लक्षण (भक्ति कैसी हो?)!!

श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार भक्ति के दो लक्षण बताय गए है "अहैतुकि अप्रतिहता"।

अहैतुकि:-अहैतुकि का तात्पर्य है बिना किसी प्रयोजन के अर्थात निष्काम भक्ति होना चाहिए। हम लोग भगवन से विनिमय (वस्तुओ का आदान प्रदान) करने लगते है यथा- हे राम जी हमारा ये काम करा दो तो आप का भंडार कराएंगे। श्याम जी हमें नौकरी दिल दो फिर हम आप को सुन्दर आभूषण चढ़ाएंगे। वैष्णव देवी माता हमें पुत्र की प्राप्ति करा दो तो हम नंगे पाँव आप के दरबार में आएँगे। तो इस प्रकार से हम भक्ति नहीं बल्कि एक व्यापारी की भाँति विनिमय करने लगते है।

अप्रतिहता:-अप्रतिहता का अर्थ होता है निरंतर। भगवान् से किसी समय विशेष में या किसी स्थान मात्र में भक्ति नहीं होनी चाहिए, बल्कि भगवान् की भक्ति हर जगह हर समय सामान रूप से निरंतर करते रहना चाहिए। "दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करे न कोय।" हम अवसरवादी है, जब हम किसी शोक या दुःख में पड़ते है तभी भगवान् को याद करते है और जब हमारा समय पुनः हमारे अनुकूल हो जाता है तो गिर भगवान् से विमुख हो जाते है।

जिस प्रकार सूर्य के उदय होने पर कमल क्यों विकशित होता है? चन्द्रमा के उदय होने पर क्यों कुमुदनी विकशित होती है?चकोर चन्द्रमा को क्यों एकटक दृष्टि से निहारता है? इस क्यों का कोई जवाब नहीं है ऐसे ही हमारे मन में भी भगवान् के प्रति सहज प्रीती होनी चाहिए। किसी प्रयोजन से या प्रतिकूलता के समय मात्र में हमें भक्ति नहीं करनी चाहिए।

इस प्रकार सच्ची भक्ति के दो लक्षण होते है कि हमारी भक्ति बिना किसी हेतु या प्रयोजन के निष्काम और निष्कपट हो और दूसरी की उसमे अवसरवादिता न हो बल्कि निरंतर प्रतिक्षण प्रतिपल भगवान् के प्रति हमारी सहज प्रीती बानी रहे।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें